सुमित मिश्र 'गुंजन'

मैं पढ़ लेता हूँ आँखों व चेहरों की तमाम भाषा.. . . . . .

Friday 1 November 2019

अब से तेरा हुआ

अब से तेरा हुआ लो वादा दे दिया तुमको
मैं पूरा कहाँ बचा हूँ आधा दे दिया तुमको

अब तो जगह ही नहीं कोई कैसे आ पाएगा
अपने दिल का हरेक हिस्सा दे दिया तुमको

इतना प्यासा हूँ कि ओस चाटता फिरता हूँ
कुछ करो तो यार मैंने दरिया दे दिया तुमको

कितनी दिलकश हो ये तो कह नहीं सकता
मैंने तो खुद को आईना बना दे दिया तुमको

मैं जब रुठता हूँ सुमित कोई मनाता भी नहीं
अब कौन फिक्र करे जो भी था दे दिया तुमको

©सुमित मिश्र गुंजन

Thursday 31 October 2019

एक बेकार प्रेम कविता-बिहार संपर्क क्रांति में

प्रेम क्या है- पता नहीं
प्रेम क्यों है- पता नहीं
पता तो केवल इतना है यार
कि जब कभी प्रेम किया जाता है
अन्य बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता

एक दिन प्रेम में किसी लड़के ने कह दिया
वह अपनी प्रिये को दुनिया की भीड़ में भी खोज लेगा
ये अलग बात है कि
बिहार संपर्क क्रांति में उस लड़की को ढूंढने में
उसने पूरे 27 मिनट खर्च कर दिये

ट्रेन में बहुत सारे लोग थे
बहुत सारी आंखें
उन आंखों में चार आंखें ऐसी भी थीं
जिन्हें दूसरों की आंखों से कोई डर नहीं
आंख हृदय में उतरने की खिड़की होता है दोस्त
खिड़की खुली भी
हृदय में उतरा भी गया

दो आंखों की मजबूरियां थी
उससे बाहर आकर दोनों ने प्रेम भरी बातें की
चाय पीते समय
लड़के को चाय अधिक मीठी लगी थी
उसने महसूस किया कि
सूरज की लाल किरणें
उसके हाथों को छूती हुई
लड़की के माथे पर खत्म होती है
मानो जैसे लड़की सिनुरिया हो गई
एक लाल साड़ी वाली औरत ने
इस कहानी को समझने का खूब प्रयास किया
और थककर सो गई

यात्राएं खत्म होने के लिए ही शुरू होती हैं
प्रेमी सोचता रहा
कैसे कहेगा अलविदा
प्रेमिका सोचती रहेगी 
कैसे कहेगी शुभ विदा
सोचते-सोचते समस्तीपुर आ गई
दोनों चल पड़े
फिर से मिलने की मौन स्वीकृति के साथ
बिना कहे
बिना सुने
ठीक उसी तरह से
जैसे कि देह से प्राण जाया करती है अक्सर

आप जानना चाहते होंगे कि-
लड़का कौन था
लड़की कौन थी
अब छोड़िए भी
क्या फर्क पड़ता है इन बातों का
रोज चलती है बिहार संपर्क क्रांति
रोज आता है समस्तीपुर
अपनी बाहों में भर लें
या फिर लें एक चुंबन
कह दे अपने दिल की बात
इन्हीं फालतू की बातों में उलझा हुआ
प्लेटफॉर्म नंबर 3 पर खड़ा कोई लड़का
रोज कहता है किसी लड़की को अलविदा

अलविदा केवल कहने की बातें हैं
इसलिए कह दी जाती हैं आसानी से
बहुत सारी बातों की तरह
मैं सच बताऊं
जब कोई लड़का किसी लड़की के दिल में उतर चुका होता है
कोई लड़की किसी लड़के के दिल में उतर चुकी होती है
तब विदा नहीं कहा जा सकता
एक दूसरे से दूर नहीं हुआ जा सकता
जैसे कि दूर नहीं होता है
शराब का नशा
सिगरेट की लत
पैसों की खुमारी
या फिर तंबाकू का तलब

समस्तीपुर स्टेशन पर अलविदा कहते वक्त
एक प्रेमी छूट जाता है प्रेमिका में
एक प्रेमिका छूट जाती है प्रेमी में
एक ट्रेन निकल जाती है दिल्ली की ओर
वे दोनों चले जाते हैं अपने अपने शहर
फिर चलेगी बिहार संपर्क क्रांति
फिर आएगी समस्तीपुर
फिर होगी इतनी ही बातें
फिर से कोई कवि लिखेगा
एक बेकार सी प्रेम कविता

©सुमित मिश्र गुंजन

Wednesday 2 January 2019

प्रिये

बहुत मुश्किल है
समय के समांतर खड़ा होना
जैसे कि-
आंधी के सामने तिनकों का टिके रहना
मैं लंबे द्वंद के बाद
थक कर बैठ जाता हूं

मुझे लगता है कि
हवाओं के नाखून निकल आए हैं
जमीन तपने लगी है
आकाश और अधिक भारी हो गया है
संग ही पानी अपना नमी खो चुका है
कितना कड़वा होता है यथार्थ!
स्वप्न के सदाबहार जंगल से एकदम परे

जब तमाम बातें
हावी होने लगती है मेरे वजूद पर
जब,
निःशब्दता के दलदल में
गहरा धसता चला जाता हूं मैं
तब तुम आती हो प्रिये
मीठी मुस्कुराहट लिए हुए
मैं भूल जाता हूं सब कुछ
और तुम्हें चॉकलेट कह कर पुकारता हूं
तुम मेरे हाथ में हाथ डालकर
मेरा फेवरेट गीत गुनगुनाती हो
मैं संगीत के उतार-चढ़ाव में
धड़कन को महसूस करता रहता हूं

तुम्हारे होने से पूर्णता का अहसास होता है
जैसे चाँद को देखकर जुगनू हौसला पाता हो
तुम जो जिद करती हो
कि एक कविता लिखूँ तुम्हारे लिए
अब कैसे कहूँ प्रिये
कईं दिनों से कुछ लिखा ही नहींं
तुम्हारे सिवा

©सुमित मिश्र 'गुंजन'

Wednesday 31 October 2018

का करें इश्क की दवा थोड़े है

का करें इश्क की दवा थोड़े है
साँसों में उतार लें हवा थोड़े है

उसपर क्यों ना उठाऊँ उँगलियाँ
कातिल है मेरा हमनवाँ थोड़े है

मैं खुद ही लुटा हूँ क्या दूँगा तुझे
फकीरों की बस्ती है दूकाँ थोड़े है

कहती हो बहुत प्यार है हमसे
कैसे मान लें भई जुबाँ थोड़े है

वो कहाँ सागर ढूँढते हो बेवकूफों
उसकी आँखें यहाँ हैं वहाँ थोड़े है

इश्क की मंडी में कईं धनपति हैं
हम फुटकर हैं पूँजी जमा थोड़े है

© सुमित मिश्र 'गुंजन'

Thursday 26 May 2016

भिखमंगा

कविता

भिखमंगा

एहन पुष्टगर देह
कमेबहीं से नञि
लोक लेहाज उठा लेलहीं
चल आबै छहीं
हाथ पसारने

देखू त'
नीक व्यवसाय बनेने अछि
एकटा गुदरी ओढ़ि
हाथ पसारने
एक-दू टा कैंचा लेल
गोहारि करैत अछि

लोक एनाहिते कहतै
भिखमंगाक कोन पुछारि
ओकर बोलीमे छलकैत
वेदनाके कियो नञि सुनैछ

बुझना जाइछ
गतिशील ट्रेनमे
मनुख गतिहीन अछि
मोन चेतना- शून्य अछि

© सुमित मिश्र ''गुंजन''
करियन ,समस्तीपुर
सम्पर्क - 8434810179

Sunday 22 May 2016

खुनिया आरि

कविता

खुनिया आरि

त्रेतायुगक बात अछि
लक्ष्मण एकटा रेख बनेने छला
रावणके रोकबाक लेल
सीताके बचेबाक लेल

आइ कलयुगमे
रेख त' वैह अछि
परञ्च
रामके रोकबाक लेल
स्वार्थके बचेबाक लेल

इ रेख ,इ आरि
बनाओल गेल अछि
पुरखाक स्वप्नके
कोरि - कारि क'
एकर आगाँ
मानवता,भाईचारा,प्रेम
सबकिछु हीन अछि

एहि आरिक परंपरा
पीढ़ी दर पीढ़ी
निमाहल जैत
लक्ष्मणके जीबैत
कोनो राम
नञि टपि सकै छथि
इ खुनिया रेखके, आरिके

© सुमित मिश्र ''गुंजन''
करियन, समस्तीपुर
सम्पर्क - 8434810179

Saturday 21 May 2016

संस्कृतिक तिलांजलि

कविता

संस्कृतिक तिलांजलि

हकार दैत अछि
आधुनिकता
आऊ
फुँकि लिय' सभ्यताके
डाहि लिय' संस्कृतिके

तकरा बाद
ओकरे चिता पर बसाबू
एकटा नव दुनिया
जत्त' नञि होइ
समाजक बंधन
लोक- लेहाज
ओतए केवल क्षुधा होइ
मनुखके मारबाक क्षुधा
मशीन बनेबाक क्षुधा

ठीके सुनलहुँ
हकार अछि
आऊ
सभगोटे अपन संस्कृतिके
तिलांजलि दै छी

© सुमित मिश्र ''गुंजन''
करियन ,समस्तीपुर
सम्पर्क - 8434810179