सुमित मिश्र 'गुंजन'

मैं पढ़ लेता हूँ आँखों व चेहरों की तमाम भाषा.. . . . . .

Wednesday 31 October 2018

का करें इश्क की दवा थोड़े है

का करें इश्क की दवा थोड़े है
साँसों में उतार लें हवा थोड़े है

उसपर क्यों ना उठाऊँ उँगलियाँ
कातिल है मेरा हमनवाँ थोड़े है

मैं खुद ही लुटा हूँ क्या दूँगा तुझे
फकीरों की बस्ती है दूकाँ थोड़े है

कहती हो बहुत प्यार है हमसे
कैसे मान लें भई जुबाँ थोड़े है

वो कहाँ सागर ढूँढते हो बेवकूफों
उसकी आँखें यहाँ हैं वहाँ थोड़े है

इश्क की मंडी में कईं धनपति हैं
हम फुटकर हैं पूँजी जमा थोड़े है

© सुमित मिश्र 'गुंजन'