गजल
है लगी ये आग कैसी खाक भी जलने लगे हैं
आप की परवाह किसको बेख़बर रहने लगे हैं
रात का पसरा सन्नाटा रुह भी है काँपती
जाम के दो घूँट पीकर दर्द को सहने लगे हैं
है ये दुनिया कातिलाना खून अपने चूसते हैं
हाथ में खंजर छुपाए वो गले लगने लगे हैं
इस सफर में साथ आये हमसफर ने छोड़ डाला
कल तलक थे मित्र उनके दुश्मन अब कहने लगे हैं
दौड़ूँ -भागूँ या चिल्लाऊँ क्या करुँ मैं ज़िंदगी
जिनको हमने दिल दिया था वेबफ़ा लगने लगे हैं
मन बड़ा मासूम ठहरा राज दिल की खोल देगा
ले "सुमित" यह लेखनी कुछ ग़ज़ल कहने लगे हैं
सुमित मिश्र
करियन ,समस्तीपुर
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