सुमित मिश्र 'गुंजन'
Friday, 1 November 2019
अब से तेरा हुआ
Thursday, 31 October 2019
एक बेकार प्रेम कविता-बिहार संपर्क क्रांति में
Wednesday, 2 January 2019
प्रिये
बहुत मुश्किल है
समय के समांतर खड़ा होना
जैसे कि-
आंधी के सामने तिनकों का टिके रहना
मैं लंबे द्वंद के बाद
थक कर बैठ जाता हूं
मुझे लगता है कि
हवाओं के नाखून निकल आए हैं
जमीन तपने लगी है
आकाश और अधिक भारी हो गया है
संग ही पानी अपना नमी खो चुका है
कितना कड़वा होता है यथार्थ!
स्वप्न के सदाबहार जंगल से एकदम परे
जब तमाम बातें
हावी होने लगती है मेरे वजूद पर
जब,
निःशब्दता के दलदल में
गहरा धसता चला जाता हूं मैं
तब तुम आती हो प्रिये
मीठी मुस्कुराहट लिए हुए
मैं भूल जाता हूं सब कुछ
और तुम्हें चॉकलेट कह कर पुकारता हूं
तुम मेरे हाथ में हाथ डालकर
मेरा फेवरेट गीत गुनगुनाती हो
मैं संगीत के उतार-चढ़ाव में
धड़कन को महसूस करता रहता हूं
तुम्हारे होने से पूर्णता का अहसास होता है
जैसे चाँद को देखकर जुगनू हौसला पाता हो
तुम जो जिद करती हो
कि एक कविता लिखूँ तुम्हारे लिए
अब कैसे कहूँ प्रिये
कईं दिनों से कुछ लिखा ही नहींं
तुम्हारे सिवा
©सुमित मिश्र 'गुंजन'